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खून खराबे से कश्मीर में दिमागी बीमारी

९ फ़रवरी २०१२

कश्मीर में रहने वाली माहिन जब नौ साल की थी तब उसने आतंकी हमले में अपने बड़े भाई की मौत देखी. 10 वर्ष की उम्र में उसने आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच हुई गोलीबारी में अपने पड़ोसी को दम तोड़ते देखा.

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तस्वीर: AP

इन हादसों ने माहिन पर गहरा असर डाला. वह बेचैन, चिड़चिडी़ और परेशान रहने लगी. उसे आराम दिलाने के लिए डॉक्टर ने पांच मिलीग्राम की नींद की दवा दी. लेकिन उसे नींद नहीं आई. दो महीने बाद ही माहिन की आंखों के सामने हुए बम विस्फोट में पांच लोगों की मौत हो गई. दो पक्षों के बीच हुई गोलीबारी में उसने अपने चचेरे भाई को भी खो दिया. उसके पिता की भी मौत हो गई. इन घटनाओं ने माहिन को तोड़ दिया. वह अकसर बेहोश हो जाती या तनाव में रहती. 15 वर्ष की उम्र में उसे श्रीनगर के अस्पताल में दाखिल कराया गया. डॉक्टरों ने उसका काफी इलाज किया लेकिन वह पीटीएसडी नाम की गंभीर दिमागी बीमारी का शिकार हो गई. अब वह 26 साल की है और अभी भी दवाइयां ले रही है. वह अकसर उदास रहती है या रोने लगती है.

यह कहानी अकेली माहिन की नहीं है. माहिन की तरह लाखों कश्मीरी अलग-अलग तरह के मनोरोगों से ग्रस्त हैं. डॉक्टरों के अनुसार बीते सालों की हिंसा ने हजारों लोगों को मानसिक बीमारियों, खास कर चिंता, आतंक के भय, अवसाद, ऑब्सेसिव कंपलसिव डिसॉर्डर (ओसीडी) और पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर (पीटीएसडी) जैसे रोगों ने जकड़ लिया है.

हिंसा का असर

शेरे कश्मीर मेडिकल कॉलेज में अध्ययन से पता चला कि कश्मीर की 55 प्रतिशत आबादी अलग अलग मानसिक रोग से पीड़ित है. मनोचिकित्सक डॉक्टर मुश्ताक मरगूब के अनुसार 8 लाख लोग मानसिक आघात और पीटीएसडी जैसे रोगों का सामना कर रहे हैं. डॉक्टर अरशद हुसैन कहते हैं कि लगातार विस्फोट, हमले और अपनों की मौत जैसी घटनाएं व्यक्ति की मानसिक स्थिति पर बेहद बुरा असर डालती हैं.

कश्मीर के एकमात्र मेंटल हेल्थ हास्पिटल में 1989 में रोगियों की संख्या 1200 थी. 2011 में यहां एक लाख मरीजों का इलाज किया गया. श्रीनगर के महाराजा हरिसिंह अस्पताल में भी मनोरोगों से ग्रस्त 150 से 200 लोग हर दिन इलाज के लिए पहुंचते हैं. इनमें से ज्यादा संख्या युवा लड़के लड़कियों की होती है. हुसैन के अनुसार हालांकि कश्मीर में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर अब तक कोई अध्ययन नहीं किया गया है. लेकिन फिर भी हिंसा और खून खराबे ने ही मासूमों पर बुरा असर डाला है.

Kaschmir Unruhen Protest Ende 2011
तस्वीर: AP

एक बम विस्फोट या मृत शरीर देखने का असर बड़े लोगों से ज्यादा बच्चों पर होता है. डॉक्टरों का कहना है कि अनाथालयों में रहने वाले बच्चे भी मानसिक रोगों से ग्रस्त पाए गए. कश्मीर के अनाथालयों में रहने वाले बच्चों पर एक सर्वे हुआ. रिपोर्ट में पाया गया कि पांच से 12 साल के 40.62 फीसदी बच्चे पीटीएसडी से ग्रस्त हैं. साढ़े बारह फीसदी बच्चे नई स्थिति की वजह से घबराहट और डर में हैं, जबकि लगभग 10 प्रतिशत बच्चों के दिल में आतंक की वजह से जबरदस्त डर बैठ गया है. करीब साढ़े छह फीसदी बच्चे ध्यान न मिलने से परेशान रहे, जबकि इतने ही बच्चों में किसी के कब्जे में चले जाने का भय फैल गया.

डॉक्टर मरगूब के अनुसार, "अनाथालयों में बच्चों को खाना, कपड़े और रहने की जगह तो मिल जाती है लेकिन उनकी मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं. यदि एक बच्चा खेल या चित्रकारी में अच्छा है और उसके इस हुनर को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता. इससे बच्चे का मानसिक और बौद्धिक विकास प्रभावित होने लगता है."

बच्चों के साथ साथ यहां की औरतें भी दिमागी बीमारियों में जकड़ती जा रही हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 15 फीसदी महिलाएं लंबे वक्त तक मानसिक परेशानी और तनाव की वजह से अनिद्रा, कम भूख और एकाग्रता की कमी जैसी परेशानियों से त्रस्त हैं. इनमें से ज्यादातर ऐसी महिलाएं हैं, जिनके पति या तो मारे गए हैं या फिर लापता हैं.

मनोरोगों के तेजी से बढ़ते मामलों के बावजूद कश्मीर में इलाज के लिए एकमात्र सरकारी अस्पताल है. दो स्थानीय अस्पताल भी ऐसे रोगियों को देख रहे हैं. जिला स्तर पर कोई व्यवस्था नहीं है. इलाज के लिए हर किसी को श्रीनगर जाना पड़ता है.

समाजशास्त्रियों के अनुसार ऐसे हालात कश्मीर पर काली छाया की तरह हैं. लोग गंभीर डिप्रेशन, तनाव, अलगाव और अकेलेपन से परेशान हैं. कई लोगों में तो खुदकुशी की भावनाएं भी बढ़ रही हैं.

कश्मीर यूनिवर्सिटी के बीए डाबला कहते हैं, "मानसिक विकारों ने समाज को प्रभावित किया है. परिवार के ज्यादातर सदस्य किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं. सुविधाओं की कमी भी है और कई लोग इलाज भी नहीं कराते. डॉक्टरों तक पहुंचने वालों की तादाद तो बहुत कम है."

रिपोर्टः आईपीएस/जितेन्द्र व्यास

संपादनः ए जमाल

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